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कैसी हों आपकी ‘वो’ ?

अर्जुन राय
अर्जुन राय
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वैवाहिक जीवन के प्रभात में लालसा अपनी मादकता के साथ उदय होती है और हृदय के सारे आकाश को अपने माधुर्य की सुनहली किरणों से रंजीत कर देती है|फिर मध्यान के प्रखर का सुनहला आवरण हट जाता है और वास्तविकता अपने नग्न रूप में सामने आ जाती है,उसके बाद शीतलता और शांति लिए विश्राम संध्या आती है जब हम थके मांदे पथिकों की भांति तटस्थ भाव से हम अपनी दिनभर की यात्रा का वृत्तान्त कहते और सुनते है जहां नीचे का कलह हम तक नहीं पहुंचता|
दाम्पत्य जीवन मीमांसा के परिप्रेक्ष्य में मानव जीवन के प्रबुद्ध पारखी मुंशी प्रेमचंद जी की तूलिका से निःसृत उक्त चंद शब्द वैवाहिक जीवन की जीती जागती तस्वीर प्रस्तुत कर रहें है|इस दृष्टि से वर्तमान परिवेश में यदि उपलब्ध वैवाहिक जीवन का गौर से निरीक्षण करें तो आप पाएंगे कि आज के दंपतियों में मदध्यान के प्रखर ताप का ही एकाधिकार है|प्रभात का क्षण आता जरूर है किन्तु पालक झपकते ही उदय दुखद अस्त में बदल जाता है|सुहाग बेला के इने गिने चंद क्षणों में ही इसकी परिणति हो जाती है और संध्या का समय तो स्पृहणीय है|यह तो उन विरले भाग्यवानों को ही नसीब होती है जिन्हें जीवन अपेक्षाकृत जीवन की यथार्थ कटुता को पवित्रता पूर्वक झेलकर दंपति जीवन में प्रवेश करता है और जीवन के संघर्ष पूर्ण बिंदुओं को स्मरण करता है जिनहे वह पूरी निर्भयता,पवित्रता एवं समर्पण से आलिंगन किए था|
आज ऐसा नहीं है क्योंकि आज का समाज अनमेल विवाह के अभिशाप से ग्रस्त है प्रतिकूलता की कालजयी व्याधि उसके जिगर को बुरी तरह से कुरेदते-कुरेदते उन्हें निष्प्राण करने को आमादा है|फिर भी इसके सुधार के लिए आज के शांतिदूतों की आंखे मुँदी हुई है यही दुख है|चंद दिवसीय स्वप्न सुख शांति पूर्वक व्यतीत होने के बाद सदैव के लिए व्यक्ति के ऊपर विषाद और वेदना का गहन अंधकार छा जाता है,कोमल कपोलो पर उठने वाले हिमजल सदृश शीतल और मृदुल मुस्कान पीड़ा की दीर्घ निःश्वास में बदल जाती है|मदध्यान के इस प्रखर ताप से तप्त हृदय का रस पिघलकर गरम आंसुओं के रूप मे श्रावित होता है जो कुसुम कपोलो को झुलसा देता है|यह यौवन रंजित सारे रंग और उभारों को यह ज्वाला वशीभूत कर देती है|ख्वाबो का किला इस प्रचंड ताप का सामना नहीं कर पाता कारण जीवन का मूल ही प्रतिकूलता के जहर से अभिसंचित हो गया है,एक जलाना चाहेगा तो एक बुझाना| परिणाम होगा वाद-विवाद,विध्वंश और विनाश|विवाह से वैवाहिक जीवन पलायित हो रहा है,शादी बर्बादी का साम्राज्य स्थापित कर रही है इसका मूल कारण यही है|
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है यह एक सूक्ति ही नहीं बल्कि जीवन का आधार है|ऐसा कौन अभागा होगा जो चाहेगा कि उसके पास अपनों कि भीड़ रहे और वह अकेले में आह भरता रहे|किसे मंजूर होगा कि उसे निर्जीव ढेले कि भांति जो जिधर चाहे फेंक दे और वह इसका प्रतिरोध भी न कर सके,शायद कोई नहीं|किन्तु आज का युवा इसी दयनीयता से गुजर रहा है क्यों? इसके दो कारण है-एक तो उसकी पुरुषत्व हीनता और दूसरी अभिभावकों की निम्न स्तरीय स्वार्थयुक्त विकृत मानसिकता|
अपने नज़रिये को बदलते हुये इन कारणों का उच्छेद आज की नितांत आवश्यकता है|विवाह भौतिक एवं अभौतिक उन्नति का एक सशक्त साधन है|गृहस्थ जीवन की नीव पर ही समाज टिका है इसकी सुदृढ़ता के लिए जीवन के भौतिक पक्ष की वकालत नहीं की जा सकती| उससे भी महत्वपूर्ण है जीवन का दूसरा पहलू जिसे आध्यात्मिकता की संज्ञा दी जाती है |हमारी नैतिकता और मानवीयता को स्थान नहीं दिया ज्ञ है|वैवाहिक संबंधो के निर्णय में भौतिकता ही वर वधू की योग्यता का एक मात्र मापदंड बनी|इसी का ही सुपरिणाम है यह स्थिति|
विवाह एक पवित्र बंधन है और प्रेम,शखय,सहयोग,त्याग,समर्पण और सय्यम जिसकी आहुतियाँ है|विवाह को आज यंत्रीकरण समझा जाने लगा है,आज विवाह एक संस्कार नहीं बल्कि एक औपचारिक सोपान मात्र रह गया है|यह औपचारिकता भी स्वतंत्र नहीं वरन जाति,दहेज एवं तथाकथित समाज धर्म के कारागार में कैद है जिसमें स्वार्थयुक्त हवस का अटूट ताला बंद है|यही कारण है की नवजागरण के बाद भी आज समाज में जहां पत्नियों को अभिशाप,वासना या भोग सामग्री समझने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है वहीं पतियों का अस्तित्व भी खतरे में है|आज पति पत्नियों के लिए आराध्य,उपासना एवं श्रद्धा का विषय नहीं बल्कि भर्त्सना,प्रतिस्पर्धा एवं तनाव-टकराव का विषय बन चुका है|यह बात अलग है की इसमें पटनीय थोड़ा पीछे है|क्योंकि विवाह विच्छेद का श्रेणात्मक प्रभाव ज्यादातर उन्ही पर पड़ता है|हत्या व आत्महत्या प्रायः उन्ही के आँचल में खेलती है|
प्रेम की आज कोई सुगन्धि नहीं,मनुष्यता मिटने के कगार पर है|नग्न नर समाज के नेत्रों के ऊपर हवसभरी वासना की परत इस कदर चढ़ी है कि उसे वैयक्तिक स्वार्थभितसा के अलावा विवाह का कोई अर्थ ही नहीं सूझता|आज का व्यक्ति एक ऐसा व्यक्ति है जिसमें व्यक्तित्व ही नहीं रह गया|वह एक लाश एक शैतान मात्र बन गया है|आज हमारा समाज नार्को इस दलदल मे डूबता जा रहा है और जीवन को बोझ बनाकर उसे धोने का कृत्रिम नाटक कर रहा है|
जीवन साथी का चयन प्रायः हमारे घर के बड़े-बूढ़े अभिभावक करते हैं|विवाह संपन्नता तक की समस्त औपचारिकताए उन्ही की होती है इसका उन्हे एकाधिकार होता है|क्या मजाल जो हम कह सके की ये रिश्ता हमें मंजूर नहीं हमें अपने वैवाहिक जीवन का निर्णय लेने की स्वंत्रता चाहिए और रिश्ता हो जाने के बाद तब तक तोड़ना सामाजिक अपराध ही नहीं बल्कि संवैधानिक अपराध हो जाता है और अंततः तत्कालीन यही दशा आती है कि मरे या मारे|क्या यह जरूरी नहीं कि यह दशा ही न आए?और हमारे पारखी अभिभावक पहले ही जीवन पारखी साबित हों?लेकिन कैसे?उनके इस महानिर्णय में भौतिक परिवेश ही सर्वस्व है|जाति-दहेज और रूपरंग कि भूमिका उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं|नैतिक अथवा व्यक्तिगत स्तर को वहाँ गौण स्थान भी नहीं है यही कारण है कि 90% रिश्ते अयोग्यहों जाते है|पैसा बहुत कुछ है किन्तु उससे सब कुछ तो नहीं खरीदा जा सकता|ऐसे में प्रेम,आनंद अथवा समंजस्य,भौतिकता उनकी जीवन शैली को व्यवस्थित करने मे असफल रहती है और इनमे तालमेल नहीं बैठता|परिवार अभावों,मन-मुटावों और झगड़ों का रंगमंच बन कर रह जाता है|जरूरी है कि जीवन कि समस्यावो व वर्तमान शैली की जटिलटावों को दृष्टि में रखते हुये हमारा समाज अपने पूर्वाग्रह को छोड़ दे|
पति-पत्नी जीवनरूपी रथ के दो पहिये है जिसके सुचारु रूप से चलने के लिए जरूरी है कि दोनों पहिये समान हो,हमारा जीवनसाथी ऐसा हो जो हमारी आंखो कि भस को पढ़ सके|हमारी भावनाओ की कद्र कर सके|हमारे दिलकी धड़कनों को सुन सके|हमारे हाथों में हाथ डालकर कदम से कदम मिलकर जीवन का सफर पूरा कर सके और इसके लिए यह जरूरी है की हमारे अभिवावक अपनी हठीतासे बज आए और हम भी विवाह के दिव्य पक्ष का ख्याल रखकर अपने आप को प्रस्तुत करें|निर्णय का आधार व्यक्तित्व बने नीरा कोरी भौतिकवादी विवशता में किया किया समझौता नहीं|
वैवाहिक निर्णय लेने से पूर्व वर-वधू को यह खुली छूट मिलनी चाहिए की वह एक दूसरे को समझे,शादी माँ-बाप की नहीं होती यदि उन्हे यह रिश्ता कबूल नहीं तो हो तो यह रिश्ता हरगिज न हो|अयोग्यता की काली चादर ओढ़कर उनकी जिंदगी की हसीन कलियों को खिलने से पूर्व ही कब्र में दबा देना कहीं से न्यायसंगत नहीं है|प्रतिकूल रिश्ता एक शव है जिसे सिर पर नहीं ढ़ोया जा सकता है|इस दुर्गंध में घुट-घुट कर मरने से अच्छा है अविवाहित रहना| और हाँ यदि आप दोनों परिस्थितियों मे से किसी के नहीं हो पा रहें हो तो व्यर्थ है आप का जीना बेकार आप जो भी करे आपकी मर्जी किन्तु इतना हमेशा याद रखना होगा कि विवाह कि सार्थकता तभी संभव है जब पति-पत्नी एक दूसरे के प्रति अपना उत्सर्ग करने को प्रस्तुत हों और यह तभी संभव है जब वे वस्तुतः सुयोग्य हो|

dulhan-scraps27

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